Friday, February 13, 2009

कभी दूजे की नजर से ख़ुद को जान कर देखिये।

अपने ही नजर से अपने आपको क्या देखते है
कभी दूजे की नजर से ख़ुद को जान कर देखिये
अजी उम्र भर अपनी मनमानी भला क्या करते है,
खुदा के लिए कभी दूजे की बात मान कर देखिये

असंभव सत्य है या भ्रम जानना जरुरी है
कभी उफनते हुए यौवन में कुछ ठान कर देखिये

जो दिखती है वह सच्चाई नही दुनिया की
कभी हंस और बगूला को पहचान कर देखिये


मीन की तरह तालाब में तैरने से क्या लाभ
कभी मांझी सा गोता लगाने की ऐलान कर देखिये


कबतक सोये रहेंगे सूर्य के उगने की ताक में
कभी अपने अन्दर जलते हुए दीप पे गुमान कर देखिये
रचना की तिथि----१६/११/०८
समय---------- प्रभातकाल में

1 comment:

  1. बहुत अच्छी प्रेरणाप्रद कविता.........

    शुभकामनाएं.

    लिख्नते रहे..

    आपका
    महेश

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aapka bahut-bahut dhanybad