लुट चुकी है अपनों की दुनिया
नदी सी बीच प्रवाह में
अनजानी सी राह में
भटक रहा हूँ मैं
जहाँ अँधेरा ही अँधेरा है
है आँखों में आंसू के सैलाब
दिल में जख्मो का डेरा है
शेष क्या रहा अब जीवन में
फ़िर भी धरकने कहती
क्या निराश हुआ जाय ?
अब प्रकृति के नियम पे
मेरी गर गई दृष्टी
'एक' है जो विनाश करता
एक ही करता है नव श्रृष्टि.
सूरज आज अंधेरे से निकल के
कल नव प्रभात ले आयेगी
जनता मैं भी विधि के विधान को
इस लोक के हैवान को,उस लोक के भगवान को
"समय सरे जख्मो को भर देती है"
असमंजस्य में हूँ तुम्ही बता दो
क्या इसपे विश्वास किया जाय ?
जिंदगी के रंग हज़ार,
कभी पतझर कभी बहार
कभी भर देती है असीम खुशिया
कभी कर देती है दिल को तार-तार
भरती है कोयल जीवन में राग
अच्छी लगाती है प्यार-अनुराग
सब किताबी बातें है,मेल नही जीवन में इसका
जब दिखे चरों तरफ़ आग ही आग
बदलेगी कुछ मंजर
रखती है कुदरत सबपे नजर
क्रूर मजाक तो कर लिया
उसने मुझे दुःख ही दुःख दिया
मैं तो अर्धमूर्छित हूँ
बहुत ही व्यथित हूँ
अन्तःकरण से एक सवाल उठे
"कुछ अच्छा होने की "
क्या आश किया जाय?
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aapka bahut-bahut dhanybad